!! ओ३म् !!
आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ।।-(यजु० २२/२२)*
इस मन्त्र में एक आदर्श राष्ट्र का वर्णन है। हमारा राष्ट्र कैसा हो?~~मन्त्र का पद्यानुवाद~~?~प्रभु राष्ट्र में कुशल हों ब्राह्मण,ब्रह्म वर्चस् सिखलाने वाले|क्षत्रिय हों बहु शूरवीर,दुष्टों से राष्ट्र बचाने वाले| तीव्र गति वाले घोड़े हों,बैल समर्थ हों बलशाली| गौ माताएं हृष्ट पुष्ट हों,बहे दूध दहियों की नाली|नारी हो आधार राष्ट्र की,जिस पर सबको नाज रहे| शूरवीर जय शील हो संतति, उन्नत सभ्य स्वराज रहे| अतिवृष्टि ना अनावृष्टि हो,पके अन्न औषधि फल बाली| प्रभो आपकी कृपादृष्टि में, झम झम मेघ करें दे ताली| योगक्षेम हो सिद्ध हमारा, सुकर्तव्य पर हमें चलाओ| बढ़े नित्य प्रति राष्ट्र हमारा,विमल मधुर अमृत बरसाओ||
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ब्रह्मन् ! स्वराष्ट्र में हों, द्विज ब्रह्म तेजधारी ।
क्षत्रिय महारथी हों, अरिदल विनाशकारी ॥
होवें दुधारू गौएँ, पशु अश्व आशुवाही ।
आधार राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही ॥
बलवान सभ्य योद्धा, यजमान पुत्र होवें ।
इच्छानुसार वर्षें, पर्जन्य ताप धोवें ॥
फल-फूल से लदी हों, औषध अमोघ सारी ।
हों योग-क्षेमकारी, स्वाधीनता हमारी ॥
क्षत्रिय महारथी हों, अरिदल विनाशकारी ॥
होवें दुधारू गौएँ, पशु अश्व आशुवाही ।
आधार राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही ॥
बलवान सभ्य योद्धा, यजमान पुत्र होवें ।
इच्छानुसार वर्षें, पर्जन्य ताप धोवें ॥
फल-फूल से लदी हों, औषध अमोघ सारी ।
हों योग-क्षेमकारी, स्वाधीनता हमारी ॥
‘आदि काल से ही पृथ्वी को मातृभूमि की संज्ञा दी गई है... भारतीय अनुभूति में पृथ्वी आदरणीय बताई गई है… इसीलिए पृथ्वी को माता कहा गया… महाभारत के यक्ष प्रश्नों में इस अनुभूति का खुलासा होता है… यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था कि आकाश से भी ऊंचा क्या है और पृथ्वी से भी भारी क्या है? युधिष्ठिर ने यक्ष को बताया कि पिता आकाश से ऊंचा है और माता पृथ्वी से भी भारी है… हम उनके अंश हैं… यही नहीं इसका साक्ष्य वेदों (अथर्ववेद और यजुर्वेद) में भी मिलता हैं… यही नहीं सिंधु घाटी सभ्यता जो 3300-1700 ई.पू. की मानी जाती है… विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी… सिंधु सभ्यता के लोग भी धरती को उर्वरता की देवी मानते थे और पूजा करते थे…
- वेदों का उद्घोष – अथर्ववेद में कहा गया है कि ‘माता भूमि’:, पुत्रो अहं पृथिव्या:। अर्थात भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं… यजुर्वेद में भी कहा गया है- नमो मात्रे पृथिव्ये, नमो मात्रे पृथिव्या:। अर्थात माता पृथ्वी (मातृभूमि) को नमस्कार है, मातृभूमि को नमस्कार है।
- वाल्मीकि रामायण- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ (जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी उपर है।)
- भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में भारतमाता की छबि बनी।
- प्रसिद्ध बांगला लेखक और साहित्यकार भूदेव मुखोपाध्याय के 1866 में लिखे व्यंग्य – ‘उनाबिम्सा पुराणा’में ‘भारत-माता’ के लिए ‘आदि-भारती’ शब्द का उपयोग किया गया था।
- किरण चन्द्र बन्दोपाध्याय का नाटक भारत माता सन् 1873 में सबसे पहले खेला गया था।
- बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंदमठ में सन् 1882 में वन्दे मातरम् गीत सम्मिलित था जो शीघ्र ही स्वतंतरता आन्दोलन का मुख्य गीत बन गया।
- 1905 में प्रसिद्ध चित्रकार अवनींद्र नाथ टैगोर ने भारतमाता को चारभुजाधारी हिन्दू देवी के रूप में चित्रित किया जो केसरिया वस्त्र धारन किये हैं; हाथ में पुस्तक, माला, श्वेत वस्त्र तथा धान की बाली लिये हैं।
- सन् 1936 में बनारस में शिव प्रसाद गुप्त ने भारतमाता का मन्दिर निर्मित कराया। इसका उद्घाटन गांधीजी ने किया। ( गाँधी जी तथाकथित लोगों में सम्मान था ऐसा इस लिए कहना पड़ रहा है कि अनेको तथ्यों को देखते है तो ये पता चलता है कि बिना बलिदान की आजादी नहीं मिली जो गाँधी के बारे में आज भी भ्रम है की बिना खडग ढल की आजादी दे दी, ये बकवास है 7.5 लाख देश भक्तो ने अपनी क़ुरबानी दी है इतिहास में महँ इस लिए है की इतिहास इनके कल में गाढ़ी की महिमा मंडित कर दी गयी आज भी इनका तारीफ इस लिए करना पड़ता की चुकी एक बड़े तबका भ्रम बस गाँधी जी को आज भी महान मानता है।)
- हरिद्वार में सन् 1983 में विश्व हिन्दू परिषद ने भारतमाता का एक मन्दिर बनवाया।
‘अथर्ववेद’ के श्लोक में मातृभूमि का स्पष्ट उल्लेख है… अथर्ववेद 63 ऋचाएं हैं, जो पृथ्वी माता की स्तुति में समर्पित की गई हैं… अथर्ववेद के बारहवें कांड के प्रथम सूक्त में 63 मंत्र हैं, वे सभी मातृभूमि की वंदना में अर्पित किए गए हैं… इस सूक्त को ‘भूमि सूक्त’ कहा जाता है… भूमि सूक्त कहने का कारण संभवत: यही था कि इस सूक्त के मंत्रों में केवल भूमि की चर्चा की गई है… इसी सूक्त के कुछ मंत्रों में भूमि को माता कहकर संबोधित किया गया है तथा उसे राजा (इन्द्र) द्वारा रक्षित बतलाया गया है… अथर्वन ऋषि की इन 63 ऋचाओं में धरती के तमाम अंगों-उपांगों, उसके बदलते रूपों का पूरी आस्था के साथ विवरण है…
ऐसा नहीं है कि हमारे पूर्वज पृथ्वी के प्रति मात्र अंधश्रद्धा ही रखते थे… धरती से मिलने वाली तमाम सुविधाओं के बारे में भी उन्हें भरपूर जानकारी थी… इसलिए एक तरफ पर वे-
माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:।
नमो माता पृथिव्यै नमो माता पृथिव्यै।।
माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:।
नमो माता पृथिव्यै नमो माता पृथिव्यै।।
‘भूमि सूक्त’ के दसवें मंत्र में मातृभूमि की धारणा को स्पष्टत: इन शब्दों में व्यक्त किया गया है-
सा नौ भूमिविर्सजतां माता पुत्राय मे पय:।
अर्थात मातृभूमि मुझ पुत्र के लिए दूध आदि शक्ति प्रदायी पदार्थ प्रदान करे।
बारहवें मंत्र में कहा गया है-
माता भूमि:, पुत्रो अहं पृथिव्या:!
अर्थात भूमि (मेरा देश) मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं।
अथर्ववेद के अलावा ‘यजुर्वेद’ में भी पृथ्वी को माता कह कर पुकारा गया है…
यजुर्वेद के 9वें अध्याय में कहा गया है-
नमो मात्रे पृथिव्ये, नमो मात्रे पृथिव्या:।
अर्थात माता पृथ्वी (मातृभूमि) को नमस्कार है, मातृभूमि को नमस्कार है।
यजुर्वेद के ही दसवें अध्याय में मातृभूमि की वंदना करते हुए कहा गया है-
पृथ्वी मातर्मा हिंसीर्मा अहं त्वाम्।
अर्थात हे मातृभूमि! न तू हमारी हिंसा कर और न हम तेरी हिंसा करें।
कहां से आया ‘भारत माता’ शब्द ?
Bharat Mata is an epic painting by celebrated Indian painter, Abanindranath Tagore (7 August 1871 – 5 December 1951)
19वीं सदी में अंग्रेजी गुलामी के खिलाफ इस तरह का राष्ट्रवादी सोच मातृपूजक बंगाल में उभरा था… उस समय के बंगाली लेखकों ने उसकी स्तुति में गीत व नाटक रचना शुरू किया… तब भी एक स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य की उनकी अवधारणा लोकतांत्रिकता पर यूरोपीय सोच से ही निकली और आगे अन्य धड़ों के बीच पनपी… उस समय सबका दुश्मन अंग्रेज शासन था, इसलिए हिंदू, मुसलमान, सिख आदि अलग-अलग वर्गों के बीच के मतभेद आजादी पाने तक के लिए खुद-ब-खुद स्थगित कर दिए गए…
I heartily thanks to this great job
ReplyDeleteAwesome
ReplyDeletejai ho.........
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