Thursday, 22 December 2016

सूर्य नमस्कार के लाभ व पीछे का विज्ञान (The Science behind & Benefits of Surya Namaskar)

सूर्य नमस्कार सामान्यतः सभी लोग जानते है और इसको अपने क्रियात्मक शारीरिक अभ्यास में करते भी है। सूर्य नमस्कार सुविधा की दृष्टि से दूसरे आसनो की अपेक्षा इसे सरलता से कही भी किया जा सकता है। 
के लाभ (Benefits of Sun Salutation)
सूर्य नमस्कार के फायदे | Surya Namaskar ke fayde
सूर्य नमस्कार के अभ्यास से शरीर (विभिन्न आसनो से), मन ( मणिपुर चक्र से) और आत्मा ( मंत्रोच्चार से) सबल होते हैं|
पृथ्वी पर सूर्य के बिना जीवन संभव नही है| सूर्य नमस्कार, सूर्य के प्रति सम्मान व आभार प्रकट करने की एक प्राचीन विधि है, जो कि पृथ्वी पर जीवन के सभी रूपों का स्रोत है |
सूर्य नमस्कार करने की विधि ही जानना पर्याप्त नहीं है, इस प्राचीन विधि के पीछे का विज्ञान समझना भी आवश्यक है| इस पवित्र व शक्तिशाली योगिक विधि की अच्छी समझ, इस विधि के प्रति उचित सोच व धारणा प्रदान करती है|
ये सूर्य नमस्कार की सलाहें आपके अभ्यास को बेहतर बनाती है और सुखकर परिणाम देती है|
सूर्य नमस्कार के पीछे का विज्ञान (The Science behind Surya Namaskar)
(भारत के प्राचीन ऋषियों के द्वारा) ऐसा कहा जाता है कि शरीर के विभिन्न अंग विभिन्न देवताओं (दिव्य संवेदनाए या दिव्य प्रकाश) के द्वारा संचालित होते है| मणिपुर चक्र (नाभि के पीछे स्थित जो मानव शरीर का केंद्र भी है) सूर्य से संबंधित है| सूर्य नमस्कार के लगातार अभ्यास से मणिपुर चक्र विकसित होता है| जिससे व्यक्ति की रचनात्मकता और अन्तर्ज्ञान बढ़ते हैं| यही कारण था कि प्राचीन ऋषियों ने सूर्य नमस्कार के अभ्यास के लिए इतना बल दिया|
दिन का प्रारंभ सूर्य नमस्कार से क्यों करें? (Why Start the Day With Surya Namaskar?)
सूर्य नमस्कार में 12 आसान होते हैं| इसे सुबह के समय करना बेहतर होता है| सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से शरीर में रक्त संचरण बेहतर होता है, स्वास्थ्य बना रहता है और शरीर रोगमुक्त रहता है| सूर्य नमस्कार से हृदय, यकृत, आँत, पेट, छाती, गला, पैर शरीर के सभी अंगो के लिए बहुत से लाभ (labh) हैं| सूर्य नमस्कार सिर से लेकर पैर तक शरीर के सभी अंगो को बहुत लाभान्वित करता है| यही कारण है कि सभी योग विशेषज्ञ इसके अभ्यास पर विशेष बल देते हैं |
सूर्य नमस्कार के आसन हल्के व्यायाम और योगासनो के बीच की कड़ी की तरह है और खाली पेट कभी भी किए जा सकते हैं| हालाँकि सूर्य नमस्कार के लिए सुबह का समय सबसे अच्छा माना जाता है क्योंकि यह मन व शरीर को ऊर्जान्वित कर तरो ताज़ा कर देता है और दिनभर के कामो के लिए तैयार कर देता है| यदि यह दोपहर में किया जाता है तो यह शरीर को तत्काल ऊर्जा से भर देता है, वहीं शाम को करने पर तनाव को कम करने में मदद करता है | यदि सूर्य नमस्कार तेज गति के साथ किया जाए तो बहुत अच्छा व्यायाम साबित हो सकता है और वजन कम करने में मदद कर सकता है|
बच्चो को सूर्य नमस्कार क्यों करना चाहिए? (Why Should Children Do Surya Namaskar?)
सूर्य नमस्कार मन शांत करता है और एकाग्रता को बढ़ाता है| आजकल बच्चे महती प्रतिस्पर्धा का सामना करते है| इसलिए उन्हे नित्यप्रति सूर्य नमस्कार करना चाहिए क्योंकि इससे उनकी सहनशक्ति बढ़ती है और परीक्षा के दिनों की चिंता और असहजता कम होती है|
सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से शरीर में शक्ति और ओज की वृद्धि होती है| यह मांसपेशियों का सबसे अच्छा व्यायाम है और हमारे भविष्य के खिलाड़ियों के मेरुदण्ड और अंगो के लचीलेपन को बढ़ता है| 5 वर्ष तक के बच्चे नियमित सूर्य नमस्कार करना प्रारंभ कर सकते हैं |
महिलाओं को सूर्य नमस्कार क्यों करना चाहिए? (Why Should Women Do Surya Namaskar?)
ऐसा कहा जाता है सूर्य नमस्कार वो कर सकता है, जो महीनो के संतुलित आहार से भी नही हो सकता है| स्वास्थ्य के प्रति सचेत महिलाओं के लिए यह एक वरदान है| इससे आप न केवल अतिरिक्त कैलोरी कम करते है बल्कि पेट की मांसपेशियो के सहज खिचाव से बिना खर्चे सही आकार पा सकते हैं| सूर्य नमस्कार के कई आसन कुछ ग्रंथियो को उत्तेजित कर देते हैं, जैसे की थाईरॉड ग्रंथि (जो हमारे वजन पर ख़ासा असर डालती है) के हॉर्मोने के स्राव को बढ़ाकर पेट की अतिरिक्त वसा को कम करने में मदद करते हैं| सूर्य नमस्कार का नियमित अभ्यास महिलाओं के मासिक धर्म की अनियमितता को दूर करता है और प्रसव को भी आसान करता है| साथ ही ये चेहरे पर निखार वापस लाने में मदद करता है, झुर्रियों को आने से रोकता है और हमे चिरयुवा और कांतिमान बनाता है|
सूर्य नमस्कार से अंतरदृष्टी विकसित करें (Develop Your Sixth Sense with Sun Salutations)
सूर्य नमस्कार व ध्यान के नियमित अभ्यास से मणिपुर चक्र बादाम के आकार से बढ़कर हथेली के आकार का हो जाता है| मणिपुर चक्र का यह विकास जो की हमारा दूसरा मस्तिष्क भी कहलाता है, हमारी अंतरदृष्टी विकसित कर हमे अधिक स्पष्ट और केंद्रित बनाता है| मणिपुर चक्र का सिकुड़ना अवसाद और दूसरी नकारात्मक प्रवृत्तियों की ओर ले जाता है|
सूर्य नमस्कार के ढेरों लाभ हमारे शरीर को स्वस्थ और मन को शांत रखते है, इसीलिए सभी योग विशेषज्ञ सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास पर विशेष बल देते हैं|
सभी अनुभव स्वयं का नहीं होता, कुछ विशेषज्ञों के अनभव को भो पढ़कर शामिल है.   हरिओम. . . . . . . .. . . . . . 

Saturday, 17 December 2016

सदियों से भारत की संस्कृति नैतिक मूल्यों व गुणों से परिपूर्ण है

सदियों से भारत की संस्कृति नैतिक मूल्यों व गुणों से परिपूर्ण है। हमारी संस्कृति नैतिक आचार-विचार व व्यवहार का पालन करने के लिए सदैव प्रेरित करती है, परंतु दुःखद बात है कि आज समाज और जीवन के हर एक क्षेत्र में नैतिक मूल्यों का ह्वास तेजी से हो रहा है।
कई लोग यह भी प्रश्न करते हैं कि आखिर नैतिकता का अभिप्राय क्या है? नैतिकता का आशय है- नीति के अनुसार। यानी हमारे विचार, कर्म और व्यवहार सद्गुणों से प्रेरित हों और वे धर्म, संस्कृति व राष्ट्र के लिए हितकारी हों।
आध्यात्मिक तत्वों व शक्तियों का संवर्धन करने वाले ऐसे विचारों, व्यवहारों व गुणों को नैतिकता कहते हैं। अत्यंत विकट परिस्थितियों में भी आध्यात्मिक गुणों का पालन करते हुए अपने कर्म विशेष के प्रति जो सदाचरण कायम रख सके, वही नैतिक है।
ऐसा तभी संभव है, जब मनुष्य अपने भीतर के अहंकार, स्वार्थ व स्वनिर्मित आत्मघाती भय से परे उठने की साधना करे। धर्म, राष्ट्र व संस्कृति को अपने जीवन की धुरी बनाए। नैतिक मूल्य हमें उचित-अनुचित आचार व्यवहार का ज्ञान कराते हैं। हमारी संस्कृति महान है।
हमारे इतिहास में ऐसे अनेक ऋषि-मुनियों, महापुरुषों व श्रेष्ठ साधकों के उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन नैतिक मूल्यों के रक्षार्थ समर्पित कर दिया और संपूर्ण समाज को जीवन के प्रति एक नई दिशा दी।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम नैतिकतामय जीवन के आदर्श प्रतीक हैं। उन्हीं के पदचिह्नों पर चलते हुए भक्तिपूर्ण भाव से अपने आचरण को नैतिक रखते हुए हनुमानजी ने अमरत्व प्राप्त कर लिया।
नैतिकतापूर्ण व्यवहार की अभिव्यक्ति हमें महर्षि वशिष्ठ, महर्षि दधीचि,स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, जैसे महानतम राष्ट्र साधकों के जीवन में दिखती है। वर्तमान में योगऋषि स्वामी रामदेव व् आयुर्वेद शिरोमणि आचार्य बालकृष्ण ने जैसा राष्ट्रहित में जैसा कार्य कर दिखाया और जिस तरह से व्यक्तिगत जीवन में  नैतिकता को आधार बनाकर भारतीय संस्कृति को सर्वोच्च शिखर पर ले जाने की स्पष्ट दूरदृष्टि के साथ तन-मन-धन से अखंड प्रचंड पुरषार्थ कर रहे हैं निश्चय ही पूर्व के हमारे महापुरषो से तुलना कोई अतिश्योक्ति नहीं होंगी।
नैतिकता के बगैर जीवन में आत्मोन्नति संभव नहीं।
नैतिकतापूर्ण जीवन जीकर, दूसरों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करके ही इस जीवन में सफलता के सही मार्ग का चयन कर सकते हैं। वैसे भी दुनिया में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो विफलता चाहता हो। नैतिकता से मनुष्य के साथ-साथ समाज और राष्ट्र का भी उत्थान होता है।
जो समाज नैतिकता से विमुख हो जाता है, उसकी अवनति तय है। इसलिए सभी लोगों को नैतिकता के मार्ग पर चलना चाहिए।
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Friday, 16 December 2016

भारत-पाकिस्तान के बीच वर्ष 1971 में हुए युद्ध में आज ही के दिन हमारी सेना ने दुश्मन के 93 हजार सैनिकों को सरेंडर करने के बाद बंदी बना लिया था।

भुट्टो के अड़ियल रवैये के कारण ढाई वर्ष तक बंदी रहे थे 93 हजार पाकिस्तानी SUNIL CHOUDHARY | Dec 16, 2016, 12:57 PM IST pak army general niyazi surrender+9 मुंह लटका कर बैठे पाक सेना के जनरल ननियाजी के ससामने इस तरह आत्मसमर्पण का मसौदा पेश किया गया था। जोधपुर। भारत-पाकिस्तान के बीच वर्ष 1971 में हुए युद्ध में आज ही के दिन हमारी सेना ने दुश्मन के 93 हजार सैनिकों को सरेंडर करने के बाद बंदी बना लिया था। बंदी बनाए गए इन सैनिकों को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फीकार भुट्टों के अड़ियल रवैये के कारण ढाई वर्ष तक भारत को मजबूरी में मेहमान नवाजी करनी पड़ी। ऐसे चला घटनाक्रम... - सोलह दिसम्बर 1971 को जनरल नियाजी ने अपने 93 हजार लोगों के साथ तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। - बंदी बनाए गए 93 हजार में से 56,998 सैनिक, 18,287 पैरा मीलिट्री सैनिक व शेष 17,376 सिविलियन लोग थे। इनमें से 4,616 पुलिस, 1628 सरकारी कर्मचारी व 3,963 अन्य लोग थे। इनमें छह हजार महिलाएं व बच्चे भी शामिल थे। - युद्ध बंदियों पर बांग्लादेश में किसी तरह का हमला होने की आशंका को ध्यान में रख भारतीय सेना सभी को विशेष रेल के माध्यम से यहां ले आई। - इन सभी को बिहार में विशेष शिविरों में रखा गया। 21 दिसम्बर 1971 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव पारित कर सभी को रिहा करने को कहा। मान्यता बगैर छोड़ने को तैयार नहीं था बांग्लादेश - भारत सरकार ने रिहा करने से इनकार करते हुए कहा कि इस युद्ध में बांग्लादेश भी एक पक्ष था। इस कारण उसकी सहमति के बगैर इन्हें रिहा नहीं किया जाएगा। - बांग्लादेश के राष्ट्रपति शेख मुजीब ने स्पष्ट कर दिया कि पाकिस्तान की तरफ से उनके देश को मान्यता मिले बगैर इन्हें नहीं छोड़ा जाएगा। - पाकिस्तान ने मान्यता देने से इनकार करते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत दबाव बनाया, लेकिन भारत सरकार अपने फैसले पर अडिग रही। - भारत-पाकिस्तान के बीच दो जुलाई 1972 को हुए शिमला समझौते में पाकिस्तान के झुकने के पीछे इन बंदी सैनिकों की बड़ी भूमिका रही। बंदी सैनिक रेडियो पर भेजते थे संदेश - उस समय आल इंडिया रेडियो पर पाक सैनिक अपना परिचय देते हुए अपने परिजनों के नाम संदेश प्रसारित करते थे कि वे यहां सकुशल है। - बंदी बनाए गए सैनिकों के परिजनों ने पाकिस्तान सरकार पर दबाव बढ़ा। पाकिस्तान के रावलपिंडी में पांच दिसम्बर 1972 को इन सैनिकों ने बड़ा प्रदर्शन कर बांग्लादेश को मान्यता देने की मांग की ताकि सभी को रिहा कराया जा सके। - पाकिस्तान का कहना था कि युद्ध के समय बांग्लादेश का अस्तित्व ही नहीं था। ऐसे में ये सैनिक अपने देश की रक्षा कर रहे थे। ऐसे में इनकी रिहाई में बांग्लादेश को पक्ष बनाना उचित नहीं होगा। - बांग्लादेश ने मांग की कि सभी बंदी सैनिक उसे सौंप दिए जाए ताकि उन पर मुकदमा चलाया जा सके। पाकिस्तान ने इसका जोरदार विरोध किया। आखिरकार प्रदान की मान्यता - पाकिस्तान की संसद ने दस जुलाई 1973 को एक प्रस्ताव पारित कर भुट्टो को अधिकृत किया कि वे बांग्लादेश को मान्यता प्रदान करने का फैसला करे, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। - आखिरकार पाकिस्तान ने 22 फरवरी 1974 को बांग्लादेश को मान्यता प्रदान कर दी। इसके बाद 9 अप्रेल 1974 को तीनों देशों के बीच दिल्ली में समझौता हुआ। - बांग्लादेश ने बंदियों पर मुकदमा चलाने का फैसला वापस लिया। अप्रेल 1974 के अंत तक सारे बंदियों को भारत ने पाकिस्तान को सौंप दिया। - भारत को करीब ढाई वर्ष तक बंदी बना कर रखे गए पाकिस्तानी सैनिकों के खानपान पर भारी-भरकम राशि खर्च करनी पड़ी। अगली स्लाइड्स में देखें अन्य फोटो Hindi News से जुड़े अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और ट्विटर पर फॉलो करे! हर पल अपडेट रहने के लिए डाउनलोड करें Hindi News App

Thursday, 15 December 2016

नारी सम्पूर्ण जीवन का आधार !

मनुस्मृति’ में लिखा है—
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवत:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।। (मनुस्मृति,3/56)
अर्थात् ”जहाँ स्त्रियों का आदर किया जाता है, वहाँ देवता रमण करते हैं और जहाँ इनका अनादर होता है, वहाँ सब कार्य निष्फल होते हैं। जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता भी निवास करते हैं।
नारी स्वयं शक्ति का एक रूप है। वह मनुष्य जाति में ऊर्जा प्रवाह का प्रमुख माध्यम है, जिसके बिना संरचना, पोषण, रक्षा और आनंद की कल्पना नहीं की जा सकती। भारतीय दर्शनशास्त्र में देवी मां दुर्गा के माध्यम से नारी-शक्ति की महत्ता स्थापित की गयी है। जब स्वयं देवादि देव महादेव ने माँ शक्ति को स्वयं में धारण किया और अर्धनारीश्वर कहलाये। तो नारी शक्ति का अलोकिक प्रकाश तीनों लोक में फैल गया । इसलिए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में चाहे देव रूप हो, दानव हो, मानव हो या कोई जीव बिना मादा के जीवन उत्पत्ति संभव नहीं। ये एक ऐसी शक्ति है, जिसके बिना भविष्य की आशा ही नहीं जा सकती और ना ही कभी सम्पूर्ण पोषण को प्राप्त किया जा सकता है, शुरुआती जीवन उत्पति के समय रक्षा का अहसास बिना इस शक्ति के अधूरा है और न ही सांसारिक जीवन जीते हुए आनंद की कल्पना की जा सकती है। पिता के न रहने से सन्तान गऱीब हो सकती है पर माता उनका पालन-पोषण ठीक-ठाक कर देती है। माता के बिना गऱीब न होने पर भी वह दु:खी हो जाती है। बच्चों का माता के बिना मन, मस्तिष्क और जीवन का सन्तुलन ही बिगड़ जाता है। बच्चों का भविष्य, आने वाले समाज का भविष्य, नारी पर निर्भर है।
भारतीय संस्कारों में नारी को पुरुष से, माता को पिता से पहले स्थान दिया जाता है जैसे माता-पिता, स्त्री-पुरुष, राधा-कृष्ण, सीता-राम, लक्ष्मी-नारायण, भवानी-शंकर आदि। चाणक्य के अनुसार जिस गृहस्थाश्रम में आनन्दपूर्वक गृह, बुद्धिमान पुत्र, प्रियवादी पत्नी, इच्छापूर्ति के लिए पर्याप्त धन, अपनी पत्नी से प्रीति, आज्ञाकारी सेवक, अतिथि सत्कार, देव-पूजन, प्रतिदिन मधुर भोजन तथा सत्पुरुषों के संग-सत्संग का सुअवसर सदा सुलभ होता है, वह धन्य है। नारी तो एक शाश्वत चिरन्तन दिव्य रूप है। जिसकी अनुभूति मात्र हो सकती है, अभिव्यक्ति नहीं। और वह अनुभूति हर उस व्यक्ति को होती है जो एक पुत्र है, पति, पिता या भाई है, इसकी अनुभूति प्रत्येक उस व्यक्ति को होती है जो आत्मीयता के धरातल पर आदमी है या हर उस जीव को होती है जो जैव धरातल पर चैतन्य है, क्योंकि नारी रूप की पूर्णता मातृरूप में होती है।

Monday, 5 December 2016

माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:। नमो माता पृथिव्यै नमो माता पृथिव्यै।।



!! ओ३म् !!



आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ।।-(यजु० २२/२२)*
इस मन्त्र में एक आदर्श राष्ट्र का वर्णन है। हमारा राष्ट्र कैसा हो?~~मन्त्र का पद्यानुवाद~~?~प्रभु राष्ट्र में कुशल हों ब्राह्मण,ब्रह्म वर्चस् सिखलाने वाले|क्षत्रिय हों बहु शूरवीर,दुष्टों से राष्ट्र बचाने वाले| तीव्र गति वाले घोड़े हों,बैल समर्थ हों बलशाली| गौ माताएं हृष्ट पुष्ट हों,बहे दूध दहियों की नाली|नारी हो आधार राष्ट्र की,जिस पर सबको नाज रहे| शूरवीर जय शील हो संतति, उन्नत सभ्य स्वराज रहे| अतिवृष्टि ना अनावृष्टि हो,पके अन्न औषधि फल बाली| प्रभो आपकी कृपादृष्टि में, झम झम मेघ करें दे ताली| योगक्षेम हो सिद्ध हमारा, सुकर्तव्य पर हमें चलाओ| बढ़े नित्य प्रति राष्ट्र हमारा,विमल मधुर अमृत बरसाओ||👏
ब्रह्मन् ! स्वराष्ट्र में हों, द्विज ब्रह्म तेजधारी ।
क्षत्रिय महारथी हों, अरिदल विनाशकारी ॥
होवें दुधारू गौएँ, पशु अश्व आशुवाही ।
आधार राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही ॥
बलवान सभ्य योद्धा, यजमान पुत्र होवें ।
इच्छानुसार वर्षें, पर्जन्य ताप धोवें ॥
फल-फूल से लदी हों, औषध अमोघ सारी ।
हों योग-क्षेमकारी, स्वाधीनता हमारी ॥




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‘आदि काल से ही पृथ्वी को मातृभूमि की संज्ञा दी गई है... भारतीय अनुभूति में पृथ्वी आदरणीय बताई गई है… इसीलिए पृथ्वी को माता कहा गया…  महाभारत के यक्ष प्रश्नों में इस अनुभूति का खुलासा होता है… यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था कि आकाश से भी ऊंचा क्या है और पृथ्वी से भी भारी क्या है? युधिष्ठिर ने यक्ष को बताया कि पिता आकाश से ऊंचा है और माता पृथ्वी से भी भारी है… हम उनके अंश हैं… यही नहीं इसका साक्ष्य वेदों (अथर्ववेद और यजुर्वेद) में भी मिलता हैं… यही नहीं सिंधु घाटी सभ्यता जो 3300-1700 ई.पू. की मानी जाती है… विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी… सिंधु सभ्यता के लोग भी धरती को उर्वरता की देवी मानते थे और पूजा करते थे…
  • वेदों का उद्घोष – अथर्ववेद में कहा गया है कि ‘माता भूमि’:, पुत्रो अहं पृथिव्या:। अर्थात भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं…  यजुर्वेद में भी कहा गया है- नमो मात्रे पृथिव्ये, नमो मात्रे पृथिव्या:। अर्थात माता पृथ्वी (मातृभूमि) को नमस्कार है, मातृभूमि को नमस्कार है।
  • वाल्मीकि रामायण- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ (जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी उपर है।)
  • भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में भारतमाता की छबि बनी।
  • प्रसिद्ध बांगला लेखक और साहित्यकार भूदेव मुखोपाध्याय के 1866 में लिखे व्यंग्य – ‘उनाबिम्सा पुराणा’में ‘भारत-माता’ के लिए ‘आदि-भारती’ शब्द का उपयोग किया गया था।
  • किरण चन्द्र बन्दोपाध्याय का नाटक भारत माता सन् 1873 में सबसे पहले खेला गया था।
  • बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंदमठ में सन् 1882 में वन्दे मातरम् गीत सम्मिलित था जो शीघ्र ही स्वतंतरता आन्दोलन का मुख्य गीत बन गया।
  • 1905 में प्रसिद्ध चित्रकार अवनींद्र नाथ टैगोर ने भारतमाता को चारभुजाधारी हिन्दू देवी के रूप में चित्रित किया जो केसरिया वस्त्र धारन किये हैं; हाथ में पुस्तक, माला, श्वेत वस्त्र तथा धान की बाली लिये हैं।
  • सन् 1936 में बनारस में शिव प्रसाद गुप्त ने भारतमाता का मन्दिर निर्मित कराया। इसका उद्घाटन गांधीजी ने किया। ( गाँधी जी तथाकथित लोगों में सम्मान था ऐसा इस लिए कहना पड़  रहा  है कि अनेको तथ्यों को देखते है तो ये  पता चलता है कि बिना बलिदान की आजादी नहीं मिली जो गाँधी के बारे में आज भी भ्रम है की बिना खडग ढल की आजादी दे दी, ये बकवास है 7.5 लाख देश भक्तो ने अपनी क़ुरबानी दी है इतिहास में महँ इस लिए है की इतिहास इनके कल में गाढ़ी की महिमा मंडित कर दी गयी आज भी इनका तारीफ इस लिए करना पड़ता की चुकी एक बड़े तबका भ्रम बस गाँधी जी को आज भी महान मानता है।)
  • हरिद्वार में सन् 1983 में विश्व हिन्दू परिषद ने भारतमाता का एक मन्दिर बनवाया।
‘अथर्ववेद’ के श्लोक में मातृभूमि का स्पष्ट उल्लेख है… अथर्ववेद 63 ऋचाएं हैं, जो पृथ्वी माता की स्तुति में समर्पित की गई हैं… अथर्ववेद के बारहवें कांड के प्रथम सूक्त में 63 मंत्र हैं, वे सभी मातृभूमि की वंदना में अर्पित किए गए हैं… इस सूक्त को ‘भूमि सूक्त’ कहा जाता है… भूमि सूक्त कहने का कारण संभवत: यही था कि इस सूक्त के मंत्रों में केवल भूमि की चर्चा की गई है… इसी सूक्त के कुछ मंत्रों में भूमि को माता कहकर संबोधित किया गया है तथा उसे राजा (इन्द्र) द्वारा रक्षित बतलाया गया है… अथर्वन ऋषि की इन 63 ऋचाओं में धरती के तमाम अंगों-उपांगों, उसके बदलते रूपों का पूरी आस्था के साथ विवरण है…
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ऐसा नहीं है कि हमारे पूर्वज पृथ्वी के प्रति मात्र अंधश्रद्धा ही रखते थे… धरती से मिलने वाली तमाम सुविधाओं के बारे में भी उन्हें भरपूर जानकारी थी…  इसलिए एक तरफ पर वे-
माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:।
नमो माता पृथिव्यै नमो माता पृथिव्यै।।
‘भूमि सूक्त’ के दसवें मंत्र में मातृभूमि की धारणा को स्पष्टत: इन शब्दों में व्यक्त किया गया है-
सा नौ भूमिविर्सजतां माता पुत्राय मे पय:।
अर्थात मातृभूमि मुझ पुत्र के लिए दूध आदि शक्ति प्रदायी पदार्थ प्रदान करे।
बारहवें मंत्र में कहा गया है-
माता भूमि:, पुत्रो अहं पृथिव्या:!
अर्थात भूमि (मेरा देश) मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं।
अथर्ववेद के अलावा ‘यजुर्वेद’ में भी पृथ्वी को माता कह कर पुकारा गया है…
यजुर्वेद के 9वें अध्याय में कहा गया है-
नमो मात्रे पृथिव्ये, नमो मात्रे पृथिव्या:।
अर्थात माता पृथ्वी (मातृभूमि) को नमस्कार है, मातृभूमि को नमस्कार है।
यजुर्वेद के ही दसवें अध्याय में मातृभूमि की वंदना करते हुए कहा गया है-
पृथ्वी मातर्मा हिंसीर्मा अहं त्वाम्।
अर्थात हे मातृभूमि! न तू हमारी हिंसा कर और न हम तेरी हिंसा करें।

कहां से आया ‘भारत माता’ शब्द ?

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Bharat Mata is an epic painting by celebrated Indian painter, Abanindranath Tagore  (7 August 1871 – 5 December 1951)
19वीं सदी में अंग्रेजी गुलामी के खिलाफ इस तरह का राष्ट्रवादी सोच मातृपूजक बंगाल में उभरा था… उस समय के बंगाली लेखकों ने उसकी स्तुति में गीत व नाटक रचना शुरू किया… तब भी एक स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य की उनकी अवधारणा लोकतांत्रिकता पर यूरोपीय सोच से ही निकली और आगे अन्य धड़ों के बीच पनपी… उस समय सबका दुश्मन अंग्रेज शासन था, इसलिए हिंदू, मुसलमान, सिख आदि अलग-अलग वर्गों के बीच के मतभेद आजादी पाने तक के लिए खुद-ब-खुद स्थगित कर दिए गए…

1866- वहीं वर्तमान समय का पहला लिखित साक्ष्य 19वीं सदी के प्रसिद्ध बांगला लेखक और साहित्यकार भूदेव मुखोपाध्याय के लिखे व्यंग्य –‘उनाबिम्सा पुराणा’ (‘Unabimsa Purana’) यां ‘उन्नीसवें पुराण’ (‘The Nineteenth Purana’) में मिलता है। लेख का प्रकाशन सन 1866 में किया गया था। इस लेख में ‘भारत-माता’ के लिए ‘आदि-भारती’ शब्द का उपयोग किया गया था।

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1873- भारत को ‘माता’ कहकर संबोधित करने का श्रेय बंगला लेखक किरण चंद्र बन्दोपाध्याय को भी जाता है… इनके नाटक ‘भारत-माता’ में भारत के लिए ‘माता’ शब्द का प्रयोग किया गया था… बन्दोपाध्याय ने सन् 1873 में सबसे पहले नाटक का मंचन किया था…

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1882- बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘आनंद मठ’ में ‘भारत माता’ को मानो साकार रूप ही दे दिया… आनंद मठ ने साम्राज्यवाद के खिलाफ विद्रोह का परचम उठाने वाले संन्यासियों की राष्ट्रभक्ति को बंगाल में घर-घर होने वाली मां काली की पारंपरिक वंदना से एकाकार कर दिया… उसके माध्यम से युग-युग से सामंती शोषण के शिकार रहे अकाल-पीड़ित बंगाल का क्षेत्रीय तादात्म्य-बोध मानो सारे भारत के क्रोध की अभिव्यक्ति और मुक्ति कामना से जुड़ता चला गया… लेकिन चूंकि उस भारत देश का मूलाधार अंग्रेजों द्वारा एकीकृत भारत का भौगोलिक मानचित्र था, इसलिए भारतमाता की दैवी परिकल्पना भी भिन्न् बनी… भारत में पारंपरिक (दुर्गा, काली, सरस्वती) देवियों की तुलना में यह ऐसी पददलित भारतमाता दीन, दु:खी किंतु संतान वत्सला, पतिपरायणा माता-पत्नी थी, जिसका पीड़ादायक स्थिति से उद्धार करना उसकी संतान का कर्तव्य माना गया… यह भी बताया गया कि दुर्दम्य देवियों के विपरीत इस त्यागमयी, वत्सला मां का सम्मान बाहरी हमलावरों या देश में पैठे गद्दारों के हाथों निरंतर खतरे में है और सर्वसमर्थ दुर्गा या काली की तरह यह मातारानी हुंकार सहित खुद अपने आक्रांताओं से नहीं निपट सकती, लिहाजा उसकी रक्षा के लिए उसके बेटों की सशस्त्र और जुझारू सेनाएं यत्र-तत्र तैनात हों… इसी का वर्तमान रूप हैं भारतमाता के पूतों के वे गुट, जो हर संदिग्ध माता विरोधी से जबरन जय बुलवाकर माता की शान के खिलाफ गतिविधि के हर कथित अपराधी को पीटने निकल जाते हैं।://drsandeepkr.wordpress.com/2016/03/14/भारत-माता-भारत-को-क्यों/