हमारे आदर्श : सुभाषचन्द्र बोस नेता जी जयंती हम उनके पदचिन्हो पर तत्पर !
! आप सबको शुभकामना !
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![]() सुभाषचन्द्र बोस का पोर्टेट उनके हस्ताक्षर सहित | |
जन्म | 23 जनवरी 1897 कटक, बंगाल प्रेसीडेंसी का उड़ीसा डिवीजन, ब्रिटिश राज |
मृत्यु | अभी भी संपेन्स |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
शिक्षा : दर्शनशास्त्र (ऑनर्स) आईसीएस
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विद्यालय | कलकत्ता विश्वविद्यालय |
प्रसिद्धि कारण | भारतीय स्वतन्त्रता |
भारत की स्वतन्त्रता पर नेताजी का प्रभाव- अंग्रेज थर -थर कापते थे अंग्रेज हमेशा चाहते रहे की सुभास चन्द्र बोस ( नेता जी ) भारत से बहार ही रहे. बहार में भी जब इन्होने भारत की आज़ादी के लिए गतिविधिया तेज कर दी तो अंग्रेजो को लगने लगा की हमारा सत्ता तो जायेगा ही जान भी जायेगा। उधर जवाहर लाल नेहरू को भी लगने लगा की ये नेता जी अपने बल बुते भारत को आज़ाद करवा देगा। देश का कमांडर ये खुद बनेगा तो ये अंग्रेजो से समझोता कर लिया जिसके परिणाम स्वरुप 15 अगस्त 1947 को पावर ऑफ एग्रीमेंट तहत सत्ता हासिल कर लिया। उसके बाद देश की ये हालात आपसे छुपा नहीं है.
ऐसे नेता:-
हिरोशिमा और नागासाकी के विध्वंस के बाद सारे संदर्भ ही बदल गये। आत्मसमर्पण के उपरान्त जापान चार-पाँच वर्षों तक अमेरिका के पाँवों तले कराहता रहा। यही कारण था कि नेताजी और आजाद हिन्द सेना का रोमहर्षक इतिहास टोकियो के अभिलेखागार में वर्षों तक पड़ा धूल खाता रहा।
नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के द्वारा किए गये विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर–घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा।
आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ। सन् 1946 के नौसेना विद्रोह इसका उदाहरण है। नौसेना विद्रोह के बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना के बल पर भारत में शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा।
आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो।
जहाँ स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी शासक नेताजी की सामर्थ्य से घबराते रहे, तो स्वतन्त्रता के उपरान्त देशी सत्ताधीश जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से घबराते रहे।स्वातन्त्र्यवीर सावरकर ने स्वतन्त्रता के उपरान्त देश के क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर नेताजी के तैलचित्र को आसीन किया था। यह एक क्रान्तिवीर द्वारा दूसरे क्रान्ति वीर को दी गयी अभूतपूर्व सलामी थी।
मै मरकर पुनः जनम में सुभास बनना चाहूँगा।
Tum mujhe khun do Main tumhe azadi dunga.
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